Monday, May 29, 2017

उढ़ेल दिया करो

आते-जाते
कोनों में टकरा कर
लबों के उभार पर
लबों को
उढ़ेल दिया करो।
कुछ पीते-रहने का
मन करता है
निढाल पलों के
निशी-कर को
एक
चुम्बन दे दिया करो।
~ आनन्द


या फिर

बहुत बंजर बहुत सूखा हुआ बादल मुझे कर दो |
दया ममता न हो जिसमें वही आँचल मुझे कर दो |
सिखा दो ए खुदा दुनिया को तुम चाहत के ढंग या फिर ,
नहीं होता है यूँ तो यूँ करो पागल मुझे कर दो |
~ आनन्द


फिर गुलिस्तां में घर जा बसाना पड़ा

भोर-भूला, तुमी हो बताना पड़ा
कैस की असलियत को छुपाना पड़ा

था ज़रूरी नहीं आपको कुछ मगर
हर बहाने को ज़रिया बनाना पड़ा

शर्त दर शर्त थी हमने हारी मगर
वस्ल का दौर हमको भुलाना पड़ा

यूँ न धोया करो इश्क़ की मैल को
मस्क रातों में फिर से जगाना पड़ा

आपने सादगी को है ओढा हुआ
इसलिये घर हमीको सजाना पड़ा

कुछ तो आफत बनो नाजनी गुलबदन
फालतू में हमे कुनमुनाना पड़ा

था सुलगता हुआ कश पे कश रात भर
खांसते-खांसते दिन बिताना पड़ा

याद रहता नहीं कोइ चहरा हमे
हर किसी को हमे पास लाना पड़ा

ढूँढता रह गया आप की गंध को
फिर गुलिस्तां में घर जा बसाना पड़ा

~ सूफी बेनाम (आनन्द खत्री )



Friday, May 26, 2017

कहो कबूतरी !!

कहो कबूतरी !!


हकोबा- चिकनकारी-कलमकारी के
दुपट्टों के शिल्प की
बारीकी के-से गुंथे
तुम्हारे
स्फ़टिक श्वेत परिपक्व
भावमय-डैने,
जब मेरे इर्द-गिर्द के
खुलेपन में सांस लेते
विशुद्ध-आस्मान के
असीम विस्तार तक
अपनी अभ्यस्त उड़ानों में
कभी लहराकर
कभी फड़फड़ा कर,
मेरी अँगुलियों की गिरफ़्त से
इश्तिहारी आज़ादी का
ऐलान तो करते हैं
परन्तु
इन्हीं अँगुलियों का
अभ्यास है जो
दवात में घुले
कई मौसमों के
असंख्य एहसासों को
पर्ण-लेखनी की नोक से
तंतु-जाल सी आकृतियों में
उभरते शब्दों को कतारों में
बांधते हुए
जीव और जीवन के अनेक
विस्तारों को भावनाओं को
खोलता है, मुक़्त करता है।


काश तुम मेरी हथेलियों का
स्पन्दन महसूस करने को लौट आते।


~



Sunday, May 21, 2017

जाले

मेरे दिल में लगे जालों को
चाहते हैं
कोई अपनी अँगुलियों से साफ़ कर दे।
फिर फूँक मारकर
गुज़री आँधी की
मिट्टी की परत को
उड़ा दे।
नीचे से अगर उसको
कोई निशान दिखाई पड़े
सुर्ख-लाल सा
तो उसे दिल न समझे,
ज्वालामुखी का लावा
ही समझे।

~ आनन्द


Thursday, May 4, 2017

मैं मात्राओं का आदमी हूँ

मैं
गोल, घुमावदार,
छल्ले-वाली,
सुडौल-स्वरांकनों का
मात्राओं का आदमी हूँ।

मेरी की और कि में
फ़र्क होता है
ऊ और आ के संयोग से
मेरे शब्द बनते हैं।
आधे अधूरे-अपंग वर्ण भी
कभी मिलकर कभी हलन्त के योग से
संधियाँ करते हैं।
सांसर्गिक मतलबों की भाषा
को शक़्ल देते हैं।
हर शब्द अपनी चुने हुए
स्वरों से
खुद से अलग महसूस
करता है।
कंठ, दंत, तालु, मूर्धा, होष्ठ के
स्पर्श से उदित चेतन - शब्द-व्यंजन
स्वरों से उछाल लेते हैं
उर्दू-ई दोस्ती के नुख़्ते
जो सफ़र-ज़हर का फ़र्क
मोहब्बत में ही  निभाते रहते,
पर रात चाँद की बातें करते वक़्त
खींचा-तानी में
मेरे कुर्ते पे चिपकी तुम्हारी बिन्दियां,
अनुनासिक्य और अनुस्वार का विवाद
ज़िन्दा कर आयीं हैं।
पर मैं मात्राओं का आदमी हूँ ,
देसी हूँ , हिन्दी हूँ।

~ सूफ़ी बेनाम


Monday, May 1, 2017

दिल दिल नहीं है खेल है तेरी दुकान में

221 2121 1 221 212

लूटा गया है जान हमें इस जहान में
दिल दिल नहीं है खेल है तेरी दुकान में

लब को नहीं ज़ुबान है, रहती जो दिल को है
धड़कन का है रिवाज़ मगर इम्तहान में

हमको पता है जान बहुत बेवफा है तू
हम-हम रहे, नसीब रहा, इस थकान में

इस आग के नसीब से हमको नहीं गिला
खुद बुझने आ गयी है यहाँ के उफान में

तेरी तलाश प्यार है मेरी तलाश तू
महसूस कर ज़मीर ज़रा रूह जान में

इक बार जो मिले तो कभी फिर नहीं मिले
हमको ज़रा जगह भी दो इस दरमियान में

कहदो तो छोड़ देंगे ग़ज़ल को दवात को
या फिर कहो तो सोंक लें तुमको दिवान में

हर रोज़ राज़ आप के खुलने लगे हैं अब
हर दिन जली है जान ग़ज़ब इस बयान में

~ सूफ़ी बेनाम