Monday, October 26, 2015

सौम्य

क्या अनभिज्ञ रहे ख़्वाबों से
या सोये नहीं थे रात को
क्या विवश हुए कुछ खो देने से
या बेसुध खुद में बिसरने को
क्या आवाज़ जागी थी सुबह से  
या राह से अल्फ़ाज़ ढूँढ़ने को
क्या कोई शरारत बिस्तरों से
सुबह आयी काँधे ठहरने को
क्या नासमझी बढ़ीं दिल्लगी से
या रहा द्वेष विद्रोही-विवेक को
अतुल्य है मर्म हर पल सौम्य
शिकायतों से न खोना इस को।
~ सूफी बेनाम


No comments:

Post a Comment

Please leave comments after you read my work. It helps.