Friday, October 30, 2015

करवा चौथ की शाम से सवाल

सहम कर सितारे
जब बादलों में जा छुपे थे
एक रिश्ता शायद सारा जहाँ
आज पहचान रहा था
कुछ लदा था शीर पे
सुर्ख वेदी सिंदूर शायद
शायद रक्तिम सा
चाँद विभोर हो रहा था
रौश तुम्हारी आँखों में
जल के लौ औ रौशनी सा
कंगनों की खनक पे
थाल दिये का संभल रहा था
गेसुओं की महक लिये
हाथ मेहंदी पंखुड़ियों से सजे थे
एक नाम ले रहे थे क्या
या शायद कुछ बुदबुदा रहे थे
करीब मैं उस दिन उतना ही था
जितने बंद आँखों में सपने सजे थे
उत्कृष्ट किसी परिणाम को
प्रणय जला रिश्ता निखार रहा था
उस दिन भी हैरां सा था
जैसे आज हूँ मैं
किसके प्रयोजन से जगा
अनुराग है ?
किस अभिप्राय को
हमारा साथ है?
~ सूफी बेनाम

वेदी - vedic, रक्तिम - red like blood, गेसू -flowers, उत्कृष्ट - full of capability/character/ beauty, अनुराग - passion/eternal love/attachment, अभिप्राय - intention.




Thursday, October 29, 2015

हाथ तलब बैचैन किसी साथ को

दीदार-औ-उम्मीद सजाने लगे हैं
लम्हे भी अब गुनगुनाने लगे हैं

देखो तुमहारे दो दम के दो वादे
निभाने में हमको ज़माने लगे हैं

नफ़्स भूलना अंदाज़ ऐसा रहा
सफर से पहचान बनाने लगे हैं

हाथ तलब बैचैन किसी साथ को
तेरे लम्स से हिचकिचाने लगे हैं

भूलना मुनासिब रहा नहीं कभी
तुझको भी इंसान बताने लगे हैं

मुत्तवासित रहे नहीं अंदाज़ तेरे
हम ग़ैरों से उम्मीद पाने लगे हैं

इश्क़ भी खेल बड़ा बे-मुरवात रहा
कोई भूलाने कोई याद आने लगे हैं

मश्क़ भरती रह गयी ख्वाइश कोई
हम तुझे लिख के भुलाने लगे हैं

यादें भी कुछ चेहरे लगाने लगीं  
जब खुद को बेनाम बताने लगे हैं

~ सूफी बेनाम



मुत्तवासित - mediate , नफ़्स - soul, self ,
मश्क़ - writing or drawing letters .

Monday, October 26, 2015

ओट

बनाता साया है मेरे असल को अंजाम तलक
गगन में घूम के हर मौसम हर शाम तलक
ओट ले दीवार की बचता रहा परछाई तलक
शम्स तहे फलक मुझको ढूंढ़ता रहा शाम तक
~ सूफी बेनाम





सौम्य

क्या अनभिज्ञ रहे ख़्वाबों से
या सोये नहीं थे रात को
क्या विवश हुए कुछ खो देने से
या बेसुध खुद में बिसरने को
क्या आवाज़ जागी थी सुबह से  
या राह से अल्फ़ाज़ ढूँढ़ने को
क्या कोई शरारत बिस्तरों से
सुबह आयी काँधे ठहरने को
क्या नासमझी बढ़ीं दिल्लगी से
या रहा द्वेष विद्रोही-विवेक को
अतुल्य है मर्म हर पल सौम्य
शिकायतों से न खोना इस को।
~ सूफी बेनाम


क्यों लबों पे आज भी बेचैन तेरी आदत पुरानी है

उलझ ले मुझसे कि गर तेरा उस्लूब मोहब्बात है
कि ख़म में आज भी तेरे महकती जवानी है।

वफ़ा कर, कि उल्फ़त मिलती नहीं लाख चेहरों में
अदा-ए-आबिदा मेरे हमराज़ की लश्कर रवानी है।

खुदा भी सोचता है हर बार मेरे हाल-ए-हसरत पे
क्यों लबों पे आज भी बेचैन तेरी आदत पुरानी है।

ये नहीं सोचता मैं कभी मिल के गुज़र के फिर
सुराह-अल-ज़लज़ला क्यूँ आज फिर मेरी कहानी है।

अलाम-ए-अखतरों के रास्तों में मिलना बिछड़ना क्या
कि खोई लम्बी शामों को रातों की आदत पुरानी है।

रस्म-ए-सूफ़ियत में खुद को अब बेनाम कहना क्या
तेरे लफ़्ज़ों पे बस्ती मेरे तखल्लुस की ज़िंदगानी है।

~ सूफी बेनाम







Saturday, October 17, 2015

रात

अधूरी नींद में
एक ख़्वाब से लिपटकर
मैं इस तरह रोया
कि जैसे फासला कोई
एक दूरी से बढ़कर
बाहों में गोया।

~ सूफी बेनाम





Tuesday, October 6, 2015

अंदाज़ मरासिम के

कभी-कभी कुछ किताबें
साथी बन जाती हैं
हम उनको खोलते पलटते नहीं
बस साथ रखते हैं।
बंद पन्नों से सवाब मिलता है
उस अनुभूति का
जो आँखों से पलटती नहीं
न ही ख्याल से गुज़री है।
जीवन का हर वो लम्हा
जो खुद से संभलता  है
घिस-घिस के बयां करता
अंदाज़ मरासिम के ।
~ सूफी बेनाम


Friday, October 2, 2015

ज़िन्दगी ये सफ़र अब नया तो नहीं

ज़िन्दगी ये सफ़र अब नया तो नहीं
हर क़दम जो साथ दे, खुदा तो नहीं।

ये मुड़ के रुक गया कि तेरा नाम सफ़र में
अंदाज़-ए-दर्द ही था कोई शिफ़ा तो नहीं।

लोग छू देते हैं अब भी  देखने अक्सर
दो रंग का अभी तक मैं इंसा तो नहीं।

लिखना ज़रूरी था जिये जस्ब सफर में
पर तुझतक न पहुंची वो सदा तो नहीं।

यहाँ  फरिश्तों में तेरा ज़िक्र रहता है
मेरा इंसा रह जाना कोई अता तो नहीं।

फ़िक्र तेरे ख़ुल्द की अब करता मैं नहीं
तेरे साथ का कोई रंग अदा तो नहीं।

अनजान गुज़र गयी जो बेनाम शहर में
वो शाम सूफ़ियानी कोई खता तो नहीं।
~ सूफी बेनाम