कुछ उम्र गुज़र गयी थी इंसा की
कुछ ख़्वाब-ए-ताबीर को बाकी थी
है ज़र कुछ भी नहीं अहले-जहाँ
हर मौज लौट कर के टकराती थी
छाप इंसा की इंसान पर पड़ती यहाँ
नये नामों से रौश दोहराती थी
इंसा बसर-गुज़र रहे बस उम्र में
तस्वीरें साथ देने को, दो बाकी थी
सायों के नाम ले कर गुज़र-नामा
शायरी हक़-ए-गुज़र बन आयी थी।
~ सूफी बेनाम
कुछ ख़्वाब-ए-ताबीर को बाकी थी
है ज़र कुछ भी नहीं अहले-जहाँ
हर मौज लौट कर के टकराती थी
छाप इंसा की इंसान पर पड़ती यहाँ
नये नामों से रौश दोहराती थी
इंसा बसर-गुज़र रहे बस उम्र में
तस्वीरें साथ देने को, दो बाकी थी
सायों के नाम ले कर गुज़र-नामा
शायरी हक़-ए-गुज़र बन आयी थी।
~ सूफी बेनाम