गर मैं
ड्राइवर होता
तो शायद
मालिक की गाड़ी को
मालिक की समझकर
चलाता।
रोज़ साफ़ करता
जहाँ मालिक चाहता
वहां गाड़ी ले जाता।
जब-तक मालिक पेट्रोल डलवाता
तब-तक गाड़ी चलती
मैं बस तनखा में रह जाता।
पर जबसे तनखा बंद हुई है
खुद को मालिक
समझे बैठा हूँ ,
औकात बस
ड्राइवर की है
अपनी गाड़ी
समझे बैठा हूँ।
~ सूफी बेनाम
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