इल्म को समझूँ ?
या अलीम को जनूँ ?
महोब्बत को समझूँ ?
या चेहरों की पहचान रखूँ ?
बयाबान -ए -बशर में
मिला नहीं मुझको सुकूँ अब।
दिन बेकस से रहते क्यों ?
रात बेईमानी से गुज़र जाती हैं।
मुक़ीर-ए-चाहत की बेपर्दगी को
अंजाम -ए-मोहोबत का सिला
ज़िन्दगी जी लेने पर जिस्त को
बेनामी की सजा मंज़ूर सी है।
~ सूफी बेनाम
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