Thursday, January 13, 2022

गुज़रे साल के कैलेंडर

बरसात में भीगे, धूप में सुखाये
तारीखों के गुलदान,
हज़ारों लम्हों के साये दीवारों पे टंगे, मेज़ पे धूल खाये
तारीखों को आपस में गूंथ
महीना दर महीना बंधे
दिनों पे लिखे काम पर
सही और काट के निशानों से घबराये
कहीं मुलाक़ातों के लाल गोले
कहीं प्रश्न चिन्हों से गुदे
नये साल के सरीखे
गुज़रे साल के पुराने कैलेंडर
देखकर सोचता हूँ
कब वापस बंध गयीं थी मेरी तस्वीर से
वो सभी कवितायेँ जिन्हें
दिल के नाखूनों से बचाकर
पिंजर से आज़ाद कर के उड़ा आया था
कैसे बीतने के बाद भी
गुज़रा साल साथ रुके रहना चाहता है
क्योंकि इसके हर दिन में
मैं था, हम थे और बेनाम हसरतों के बदन
कागज़ी, सुन्दर, आलतायी पाँव के पद चिन्न्ह


~ सूफ़ी बेनाम



Sunday, July 4, 2021

जीवन अभ्यास

मनुष्य
जीवन भर
अपनी अंतिम यात्रा के क्षणों का अभ्यास करता है
प्रतिदिन की थकावट,
सुख को खोने का भय
अवसाद, अधूरापन, थकावट, निद्रा, साँसें
सब मरणाभास हैं

मनुष्य
अंतिम पलों में
अभ्यास-पाठ का अंतिम प्रहार करता है
दोहराता है

जैसे जीवन के अंत में
मनुष्य असहाय महसूस करता है, तो यह जीवन भर का भाव है
जैसे उसको लगता है कि सब कुछ छूट रहा है
जैसे वो कभी-कभी पछताता है
डरता, घबराता है
या फिर डूबने लगता है विषाद में,
या, करता है जन्म-भूमि जयघोष, सिपाही सा
या, घुल जाता है नमक के डेले सा
कवि-कल्पना की भांति, दिलों में
या, भरता है हुंकार, योद्धा के जैसे
और साँस चलते हुए भी उसको लगता है
कि शायद ऐसा ही होगा अन्त, ऐसे ही आरम्भ होगा आगे का सफर
और अनुशासन बद्ध करता है प्रतिदिन नित-पल स्वयं को
वैसे ही पिता को अभ्यासित थे
समाधि के रास्ते
कंठस्थ थे 
उनके मौन को मन्त्र

प्रवास के कुछ पल पूर्व
उन्होंने अपनी ध्यान-कुर्सी पर बैठने का हठ किया
नित-दिन का अभ्यास काम आया
और उन्होंने अपना रास्ता अपनाया

ध्यान-विलीन-अनुशासन
उनके जीवन भर का हासिल था
~ आनन्द


स्वर्गवासी पिता श्री मोहन लाल खत्री की स्मृति में
(१७ जुलाई १९४२ - २२ अप्रैल २०२१ )





Friday, July 10, 2020

कच्चे घर 

आसमां झाँकता है भीतर
रौशनी उतर आती है अन्दर
जब ढह जाते है छप्पर
जब गिर जाती हैं दीवारें 



Saturday, December 7, 2019

सहचरा

ज़िन्दगी है
तो अपनी प्रेमिका
अपनी पत्नी, अपनी सहचरा
अपनी दोस्त की स्टेयरिंग थामकर
उसके भीतर उसके दिल के एयर-कंडिशन्ड कम्पार्टमेंट
में leather seat पर बैठकर दुनिया देखने में है


उसमें फ्यूल हो तो क्या कहने
और टैंक फुल तो आहा !
......... दूर निकल चलो।


स्त्री मन की विंडस्क्रीन पे लगे हुए
चमकदार रेडिएशन फ्री ग्लास
स्पष्ट आंखों, कोमल luxurious मन के भीतर
स्टेयरिंग को संभाले,
उसके power-infused bold exterior, great geometry,
seamless body, connectivity on the go,
M2M embedded sim technology,
regenerative banking,
inbuilt navigation, fatigue reminder,
driver armrests, lumbar support
panoramic sunroof,
cruise control और mobile charging ports से लैस
अपनी संरक्षित सीट पर बेल्ट कसे
चुपचाप सर हिलाते
FM के चुनंदीदा गाने पर उन्मत्त
मगन-मस्त
मैं -आशिक-मिजाज़, आवारा
उसका ड्राइव-her तो बन बैठा हूँ
पर उसके ABC को सँभालते
गियर बदलते-बदलते
मंज़िल दर मंज़िल सड़कें नापते-नापते
अपनी वासना का उसके धातु से
संश्लेषण कर बैठा हूँ
परम पिता परमेश्वर का सपना आज पूरा हुआ
जीव-धातु- आत्मा- ऊर्जा सब एक साथ चल रहे हैं



माना अगर एक stick-shift गाड़ी India में चला लो
तो दुनिया भर के देशों की सड़कों और
cars की मास्टरी हो जाती है
पर सब ठीक होते हुए भी यह सोच कर
चिन्ताकुल हूँ कि
मेरी आतशमिज़ाज, हाई पिक-उप,
लाल रंग की चमचमाती डार्लिंग
में अगर एक सीट मेरी थी तो बाकी खाली सीट किसकी ?


चलो! अब ईश्वर की मंशा


एक third world country में
ड्राइविंग मज़ाक है
हर सफ़र में एक नया डेंट, एक नयी खरोंच
शिकायत यही है कि मेरे शहर की सकरी सड़क पर
नये नये मॉडल की चमचमाती चार पहियों पर
बेतहाशा दौड़ती स्त्रियाँ एक agenda ले कर आती हैं
और अक्सर ही लगा जाती हैं अपने निशान
या फोड़ जाती हैं मडगार्ड मेरी Safari के
हर स्क्रैच हर डेंट अपनी कहानी कहता है

पर अब एक अच्छे ड्राइवher के साथ मैं अच्छा डेंटर भी हूँ
मैं मेंटेनन्स रखता हूँ, वो चमचमाती रहती है।



चलना उसका प्रारब्ध और
चलाना मेरा शौक है।

Sunday, September 9, 2018

कविता के स्कूटर

युग की इस नव चेतना के विकार में
उगने लगी हैं हर बेड-रूम के तकिये पर
हर आसमान के तारे की खिड़की पर
हर किसलय, हर गली में
हर रात के अँधेरे के गोबर में
पेड़, वृक्ष -लतायें
और उन पे उग आते हैं
कविता के स्कूटर


कविमन निपुण निगाहों से
खोल लेता है
उन स्कूटरों का ताला
और ले के उड़ जाता है
कविता के स्कूटर को
मनचाही सड़कों पर,
नाचता है
वादियों में, आसमान तक
बेझिझक बड़ूऊऊऊम बड़ूऊऊऊम


जहाँ तक चलते हैं ये स्कूटर वहीँ तक चलाता है इनको
और फिर पटक के ज़मीन पर
छोड़ देता है सड़ने को गलने को
आगे के रास्ते के लिये खोजने लगता है
नयी वृक्ष लताओं पे लटके नये स्कूटर
आज का कवि एनवायरनमेंट सेंसिटिव नहीं है
अब इनको कितना समझायें कि
कविता के स्कूटरों का लोहा
बायो -डिग्रेडेबल नहीं है
उसको गलने में एक सदी लग जाती है


कायदे से
पुराने कवियों की तरह
पेट्रोल खत्म होने से पहले
अनुभूतियों तक घूम कर
वापस कर देने चाहिये स्कूटर
पेड़ों की डालियों को, तकियों के गिलाफों को
आसमान को और रात के अन्धकार को
या फिर उनको साहित्य की अकादमियों में
हर पाँच हज़ार मील पर सर्विस करा लेना चाहिये


नौसिखिया होना क्षम्य नहीं है
एनवायर्नमेंटल पल्यूशन मचाना
ट्रैफिक वायोलेशन अपराध है
आने वाली जनरेशन के लिये घातक

~ आनन्द


Thursday, December 7, 2017

अनायास

लाइफ इस ब्यूटीफुल .......
ब्यूटी हमेशा ना-समझ होती है,
जैसे ज़िन्दगी,
जैसे वो और जैसे मेरे मन में
बसी तुम।
समझ और समझदारी ही घातक है
ज़िन्दगी में
जैसे वो, उसका प्यार और
तुम्हारा गम।
काश जीव-प्रक्रियाओं को
अनायास रहने देते
जैसे समय की ढ़लान पर चलती
साइकिल
जैसे साइकिल के हैंडल पे संकुचित
सी बैठी तुम
..... आसक्ति-जात-तत्क्षण से ग्रस्त मैं
और मेरा मन
.......
अपने पुरानेपन को दोहराता हूँ
बार-बार
जैसे सूर्योदय , जैसे काल-चक्र और
जैसे मौसम।
~ आनन्द


आसक्ति - fascination; तत्क्षण - spontaneous

Friday, November 17, 2017

खुद से मैं अनभिज्ञ बहुत हूँ , मुझसे मेरा बोध करा दो

खुद से मैं अनभिज्ञ बहुत हूँ , मुझसे मेरा बोध करा दो
इस अनन्त दुनिया में मेरी, अपनी इक पहचान दिला दो

जाने कब से चलता आया, लाखों साल हज़ारों काया
पथिक रहा, पर अब है बसना, पता मुझे मेरा बतला दो

अपनी खल-बल में खोया हूँ, भूल चूका मैं बीता सबकुछ
गुज़री बातें छवियों में अब, मनको अंगीकार करा दो

कंवल पंखुरी ओंठो से छू , तृष्णा का अनुमान कराकर
अपने दिन की परछाई की, मुझको तारीखें दिलवा दो

बिम्बों से खुद को जाना है, बिम्बों को अपना माना है
गर आईना टूट गया तो, छवियों को तुम भी बिखरा दो

मिल-लूं-जुड-लूं कैसे फिर मैं, सौ टूटन से बासी हूँ मैं
बीत गयी जो बात गयी है, दिल को ये मेरे समझा दो

पुनर्जन्म के लेन-देन में, बस कर्मों की प्रतिक्रिया हूँ ?
मर कर जीने के उद्देश्यों का अब तो मुझको लेखा दो

सोते ही मैं बुझ जाता हूँ, आकुल मन से जग जाता हूँ ,
समय-काल संघर्षित मैं हूँ , संधिपत्र अबतो लिखवा दो

भोग-विलासी दुनिया है सब, क्या वैरागी बन जाऊँ अब,
कुछ होने से क्या होता है, "ना" होने की, उन्मत्तता दो

गलियों से मंदिर का रस्ता, अड़ते-फंसते, जोगी पहुंचा
कहाँ-कहाँ रहते हो प्रभुवर, कीचड़-दल में फूल खिला दो

कभी मैं शोना कभी मैं बाबू, कभी मैं प्रेमातंकित साधू
कभी प्रणय का काला जादू , कौन हूँ मैं उसको बतला दो

मोड़ पे जब वो मिलने आया, तब मैं उस से मुड़ आया था
मृग-तृष्णा का मोड़ जो मैं हूँ , उसके पार , मुझे पहुंचा दो

पाखण्डी कुछ मैं हूँ, जग कुछ, छूछा खाली बर्तन सब कुछ
मिलूं-जुलूँ अब किससे, किसको दोस्त कहूँ, इतना, बतला दो

तत्वों का अणु-बंधन काया, वो जिसको मैं, मैं कह आया
सच है बस मृग तृष्णा माया, अहम हो तुम इतना दिखला दो

बिम्बित ही बस दिख पाता है, सच बसता दर्पण के पीछे
प्रतिमित को कैसे अपनाऊँ, तोड़ के छवियों को बिखरा दो

रिश्ते जब मैं बो देता हूँ, सबकुछ अपना खो देता हूँ
खो कर कब कुछ मिल जायेगा , थोड़ी तो ढाढ़स बंधवा दो

जीने को मैं जी जाऊँगा, मर कर एक दिन मिट जाऊँगा
सच वो जिसको पाने आया, हस्ताक्षर उसका करवा दो

लौ जो सबको जीवन देती, हर कण को जो रौशन करती
चेतन मन में इस शरीर में, उस लौ से संज्ञान करा दो

नव जीवन पाता हूँ खुद में, अंदर तक जब घुट जाता हूँ
जीव-पुष्प की न्याय-विधा की यात्रा का, कोई नक्शा दो

कोंपल में मुर्झाती दुनिया, पल्लव में फिर खिल आती है
महा चक्र है दुनिया में तम अभ्यन्तर है, दीप जला दो

पत्थर से अब बतियाता हूँ, तरु पत्र में छुप जाता हूँ
तुमसा ही मायावी कवि हूँ, प्रभुवर अब तो अनुचरता दो

सुनो जगत की भीड़ भाड़ में , थामना कब है यह बतलाकर
इन अनजान व्यवस्थाओं में, मेरा मुझो ठौर दिला दो

खो कर ही कुछ मिल पायेगा, पाकर सब कुछ लुट जायेगा
कहो कहाँ है जाना पाकर, इसका भी विस्तार बता दो

कई अचेतन मन की परतों , के अंदर में बसा सनातन
अभिज्ञान स्वय का हो जाये मन में ऐसी ज्योत जला दो