Sunday, September 9, 2018

कविता के स्कूटर

युग की इस नव चेतना के विकार में
उगने लगी हैं हर बेड-रूम के तकिये पर
हर आसमान के तारे की खिड़की पर
हर किसलय, हर गली में
हर रात के अँधेरे के गोबर में
पेड़, वृक्ष -लतायें
और उन पे उग आते हैं
कविता के स्कूटर


कविमन निपुण निगाहों से
खोल लेता है
उन स्कूटरों का ताला
और ले के उड़ जाता है
कविता के स्कूटर को
मनचाही सड़कों पर,
नाचता है
वादियों में, आसमान तक
बेझिझक बड़ूऊऊऊम बड़ूऊऊऊम


जहाँ तक चलते हैं ये स्कूटर वहीँ तक चलाता है इनको
और फिर पटक के ज़मीन पर
छोड़ देता है सड़ने को गलने को
आगे के रास्ते के लिये खोजने लगता है
नयी वृक्ष लताओं पे लटके नये स्कूटर
आज का कवि एनवायरनमेंट सेंसिटिव नहीं है
अब इनको कितना समझायें कि
कविता के स्कूटरों का लोहा
बायो -डिग्रेडेबल नहीं है
उसको गलने में एक सदी लग जाती है


कायदे से
पुराने कवियों की तरह
पेट्रोल खत्म होने से पहले
अनुभूतियों तक घूम कर
वापस कर देने चाहिये स्कूटर
पेड़ों की डालियों को, तकियों के गिलाफों को
आसमान को और रात के अन्धकार को
या फिर उनको साहित्य की अकादमियों में
हर पाँच हज़ार मील पर सर्विस करा लेना चाहिये


नौसिखिया होना क्षम्य नहीं है
एनवायर्नमेंटल पल्यूशन मचाना
ट्रैफिक वायोलेशन अपराध है
आने वाली जनरेशन के लिये घातक

~ आनन्द


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