Thursday, June 18, 2015

आतिश-ए-चीनार

शाम-ए-ग़ज़ल के वो चंद मिसरे,
बहे बेहतर थे तेरी कलम से।

आतिश-ए-चीनार मेरी रूह में ज़्यादा,
सुलगकर शोला हुए हैं खुदी से।

वो राहें, वो जंगल, वो बागान जहाँ से
गुज़रते थे बादल नरम गद्दियों से।

वो खुले आसमां के नामी फ़रिश्ते
तेरी ग़ज़ल की तश्बीह को तरसे।

कदम-ए-कलम, रुक-रुक थमे से ,
तेरे एक आदाब से सालों बिताते।

तलाश-ए-नज़र को तकमील कहाँ से,
बेनाम एक नज़र के तलबगार रहे थे।

शाम-ए-ग़ज़ल के वो चंद मिसरे,
घुले बेहतर थे तेरी कलम से।

~ सूफी बेनाम



तकमील - completion 

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