इन मिसरों की अदा कोई क्या समझे
मैने कागज़ पे दिल को पिघलते देखा है
कुछ मीर-औ-ग़ालिब जो हैं नहीं अब यहाँ,
उनके अल्फ़ाज़ों को खुद से सँभालते देखा है।
बड़े बेगैरत हैं यहाँ आज के लिखने वाले
कच्चे रास्तों पे खेलते हैं नादाँ बच्चे
कुछ को मंसूबा है ज़िन्दगी उलझाने का
कुछ के अल्फ़ाज़ों को ताबीत पे चलते देखा है।
चाहे ढका रहा वो नज़्म की ज़री बूटियों में
चाहे आह किसी की उभरती जरकन में थी
किसी का दर्द पहुंचा तो उसके कानों तक
बरहाल वो बेरुख ही रहा, तो क्या हुआ ?
ऐ हुस्न-ए-फ़िज़ा तू भी गुदी है यहाँ
किसी दिन की हसीं याद की खलिश बनकर
किसी की नब्ज़, नुक़्ता-रेज़ी में अभी बाकी है
कुछ शर्मसार हैं किसी की आरज़ू बनकर।
इन मिसरों की अदा कोई क्या समझे
मैने कागज़ पे दिल को पिघलते देखा है
साथ इंसान से बेहतर देते हैं मतले कई
कई मसले मक़्ता फिर कुरेद जाते हैं।
~ सूफी बेनाम
मैने कागज़ पे दिल को पिघलते देखा है
कुछ मीर-औ-ग़ालिब जो हैं नहीं अब यहाँ,
उनके अल्फ़ाज़ों को खुद से सँभालते देखा है।
बड़े बेगैरत हैं यहाँ आज के लिखने वाले
कच्चे रास्तों पे खेलते हैं नादाँ बच्चे
कुछ को मंसूबा है ज़िन्दगी उलझाने का
कुछ के अल्फ़ाज़ों को ताबीत पे चलते देखा है।
चाहे ढका रहा वो नज़्म की ज़री बूटियों में
चाहे आह किसी की उभरती जरकन में थी
किसी का दर्द पहुंचा तो उसके कानों तक
बरहाल वो बेरुख ही रहा, तो क्या हुआ ?
ऐ हुस्न-ए-फ़िज़ा तू भी गुदी है यहाँ
किसी दिन की हसीं याद की खलिश बनकर
किसी की नब्ज़, नुक़्ता-रेज़ी में अभी बाकी है
कुछ शर्मसार हैं किसी की आरज़ू बनकर।
इन मिसरों की अदा कोई क्या समझे
मैने कागज़ पे दिल को पिघलते देखा है
साथ इंसान से बेहतर देते हैं मतले कई
कई मसले मक़्ता फिर कुरेद जाते हैं।
~ सूफी बेनाम