Monday, March 16, 2015
Thursday, March 5, 2015
फागुन का त्यौहार
मैने देखा हिना-सजी हथेलियों को
अंजुमन में रंग, रंजित ज़बी करते हुए।
चूड़ियों में चिपचिपाहट चाशनी की
मौलपुए वारिदों का स्वाद बनते हुऐ।
हो रंग को तासीर आदमी का बदन
शौक हो तुमको भी रंग भरने का
निढाल रगों में ख़ाक जो ख्वाइशें
उनको सहारा नशा-ए-चाँद पे उभरने का।
तुम तलक भी कोई रंगी हुई हथेली पहुंचे
रहे तुमको भी मौका किसी के पागलपन का
बह उठे हिना मेरे अक्षरूं से पिघलकर
कुछ नया सा नज़ारा हो शाम-ए -फागुनी का।
~ सूफी बेनाम
ज़बी - forehead; वारिदों - guests/incoming visitors
अंजुमन में रंग, रंजित ज़बी करते हुए।
चूड़ियों में चिपचिपाहट चाशनी की
मौलपुए वारिदों का स्वाद बनते हुऐ।
हो रंग को तासीर आदमी का बदन
शौक हो तुमको भी रंग भरने का
निढाल रगों में ख़ाक जो ख्वाइशें
उनको सहारा नशा-ए-चाँद पे उभरने का।
तुम तलक भी कोई रंगी हुई हथेली पहुंचे
रहे तुमको भी मौका किसी के पागलपन का
बह उठे हिना मेरे अक्षरूं से पिघलकर
कुछ नया सा नज़ारा हो शाम-ए -फागुनी का।
~ सूफी बेनाम
ज़बी - forehead; वारिदों - guests/incoming visitors
Tuesday, March 3, 2015
अल्फाज़ो की अनकही कड़ियाँ
हिला देती हैं हर बार
जब भी ढूंढने आती हैं मुझको,
ये मेरी दोस्त मेरे जज़्बातों को
शिनास देती हैं।
अल्फाज़ो की अनकही कड़ियाँ
इंसा सी हैं, मेरे लिये
मेरी दोस्त हैं, मेरे
इशारों पे बदल जाती हैं।
साथ नहीं छोड़ती मेरे दोस्त मेरा
जो मिलती हैं मुझसे भोरे -भोरे
तो शाम का हाथ थाम के
बिस्तर तक चली आती हैं।
न धूप से नज़र
न डर बरसात का
शायद ज़िन्दगी ये भी
किसी और को दे के आयी हैं।
नब्ज़ है, धड़कन है ,माइने है,
ज़ुबाँ है औ शायद मज़हब भी
पर फ़रिश्ते सी हैं
शायद परछाई नहीं उनको कोई।
~ सूफी बेनाम
जब भी ढूंढने आती हैं मुझको,
ये मेरी दोस्त मेरे जज़्बातों को
शिनास देती हैं।
अल्फाज़ो की अनकही कड़ियाँ
इंसा सी हैं, मेरे लिये
मेरी दोस्त हैं, मेरे
इशारों पे बदल जाती हैं।
साथ नहीं छोड़ती मेरे दोस्त मेरा
जो मिलती हैं मुझसे भोरे -भोरे
तो शाम का हाथ थाम के
बिस्तर तक चली आती हैं।
न धूप से नज़र
न डर बरसात का
शायद ज़िन्दगी ये भी
किसी और को दे के आयी हैं।
नब्ज़ है, धड़कन है ,माइने है,
ज़ुबाँ है औ शायद मज़हब भी
पर फ़रिश्ते सी हैं
शायद परछाई नहीं उनको कोई।
~ सूफी बेनाम
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