Monday, January 19, 2015

बेवक़ूफ़-ड्राइवर

गर मैं
ड्राइवर होता
तो शायद
मालिक की गाड़ी को
मालिक की समझकर
चलाता।

रोज़ साफ़ करता
जहाँ मालिक चाहता
वहां गाड़ी ले जाता।
जब-तक मालिक पेट्रोल डलवाता
तब-तक गाड़ी चलती
मैं बस तनखा में रह जाता।

पर जबसे तनखा बंद हुई है
खुद को मालिक
समझे बैठा हूँ ,
औकात बस
ड्राइवर की है
अपनी गाड़ी
समझे बैठा हूँ।

~ सूफी बेनाम









जलौनी ( Fire-wood)


दिन भर के किस्से
कैसे मौसम-बिखरे
तूफ़ान-उजड़ी सूखी टहनियाँ
बटोर-बटोर कर
शाम को सिर पे लादे
बूखी अंतड़ियों में लिपटी सांसें
इस उम्मीद पे चला मैं
घर के रास्ते,
कि शायद इस बार की बटोरी से
आग तेज़ दहकेगी।
पर सब्र रखना होगा
शायद, कुछ लकड़ियाँ गीली है
आंच कम और
धुआं दे-दे  के जलेंगी
रुलायेंगी।

~ सूफी बेनाम


Sunday, January 18, 2015

इल्म को समझूँ, या अलीम को जनूँ ?

इल्म को समझूँ ?
या अलीम को जनूँ ?
महोब्बत को समझूँ ?
या चेहरों की पहचान रखूँ ?

बयाबान -ए -बशर में
मिला नहीं मुझको सुकूँ अब।
दिन बेकस से रहते क्यों ?
रात बेईमानी से गुज़र जाती  हैं।

मुक़ीर-ए-चाहत की बेपर्दगी को
अंजाम -ए-मोहोबत का सिला
ज़िन्दगी जी लेने पर जिस्त को
बेनामी की सजा मंज़ूर सी है।

~ सूफी बेनाम


Sunday, January 4, 2015

........... नाम लिखा देखा है

........... नाम लिखा देखा है

एक ग़ज़ल की किताब पे
तुम्हारा नाम लिखा देखा है
न सही ज़िन्दगी के दरमियान
पर तुम्हारा ख़्वाब खिला देखा है।

बहुत हैं वाक़ियाँ छुपे ढके
इन कागज़ों के गिलाफ़ में
शायद सांसो से थमा नहीं
जो कई महफ़िलों का नसीब था।

होंगे कोरेपन पे गुंथे हुए
हसरतों के कारवां
थोड़ी अनसुनी, बेनियाज़ सी
तेरी ज़िन्दगी की दास्तां।

~ सूफी बेनाम

बेनियाज़ - carefree,



( I wrote this after reading the some works and life of Parveen Shakir)