Thursday, September 26, 2013

शोर

शोर सड़क का और
दिन का कोलाहल थमा
तो घर पर बच्चों
के लड़ाई झगड़े
बर्तन , घंटी , पानी
कभी सीरियल कभी
चीख़ पुकार
रात को ए सी की आवाज़
खिसकती चिटकनी
घड़ी की टिक-टिक
और फिर सांसों की खुशबू - उलझन!

कुछ देर को लगता रहा
कि क्यूं इतनी आवाजें
रहती थीं पार करने को
क्या तुम्हारी सांसो
तक पहुँचने को ?
फिर लगा की
श्रंखला की एक कड़ी
जिसमे छाँव दर्पण रही
मन भीचने को
एक सहारा रात का था
ज़िन्दगी वहीँ से शुरू होती थी
हर रोज़ शोर में बदलकर।

~ सूफी बेनाम


Wednesday, September 18, 2013

अधूरी- मुलाकातें

मैंने भी सबक यही लिया इस दोस्ती से,
आग तो चिंगारी से लगती ज़रूर है।

जिस तरफ झांकना भी हमको था मना
आस दर्द को उस तरफ से आती ज़रूर है।

रोज़ मिलने से भी कुछ होता नहीं रफ्ता-रफ्ता
मेरी यादें चंद लम्बी दोपहरों की कर्ज़दार ज़रूर हैं।

अधूरी इन मुलाकातों से हम उब चुके हैं
कभी-कभी काजल और बिन्दी को बेताब ज़रूर हैं।

हुस्न को जिस्म से नहीं महक से समझकर देखेंगे
ज़िन्दगी नये नये ज़रिये दिखलाती ज़रूर है।

मेरा क्या है बेनामी की शौहरत कितनी भी हो
इन मुलाकातों को बईमान जस्बे कबूल नहीं।


~ सूफी बेनाम







Saturday, September 14, 2013

बदलाव

ज़िन्दगी को एक बहाव
की ज़रुरत है
चाहे वो पसीने का हो
या फिर बहाव खून का
चाहे वो जिस्म से बहे
या जिस्म में बहे।

जब भी हमने रुकना चाहा
या ठहराव लाये
या किसी को चाहा
या किसी इकरार को ठहरे,
वहीँ या तो मेरी चाहत बदली
या हम ही बदल गये।

ज़िन्दा दिल ज़िन्दगी
ठहराव पसंद नहीं
यह सोचती नहीं की है ज़रूरी
दो पल को सुस्ताना,
सोचना, महसूस करना, अपनाना
रुकना या बस जाना।

उसको एक बहाव की
ज़रुरत है
कभी लहू
कभी नुफ्ता
कभी पसीना
बदलाव ज़रूरी है ज़िन्दगी को।

`~  सूफी बेनाम


नुफ्ता - passion fluids (sperms).

ख्याल

दिल की दो परत ऊपर
एक ख्यालों का खुबसूरत बागीचा है
यहाँ का मज़हब महोबत है
और चाहत ख्याली है
दिखता भी सिर्फ़ दिल की आँखों से है।

जब मै शान्त बैठा रहता हूँ
अपने बिस्तर की किनारी पर
तब एक ख्याल धीरे से
मेरे दिमाग की लियाक़त पर
चमकता है,कौंधता है, उतरता है ।

उसको पूरी-अधूरी तरह जकड़ता हूँ
शब्दों के गोशा में
पर बशर-ए-अर्क की नखत से
पहुँच के बाहर हो जाते हैं,
शर्मा जाते हैं, उड़ जाते हैं ।

मै कई बार कूदता रहता हूँ
बच्चों की तरह, उनको पकड़ने
पर मेरी मुट्ठी की कैद कमज़ोर है
ये सेमल के बिनौले पहुँच से दूर हो जाते हैं
खो जाते हैं, बेनाम आसमान में।

उनको आज़ाद अपनी पहुँच से दूर,
देखकर तस्सली होती है
वो भी बशीर-ए-कैद पे मुस्कुराते हैं
पर सुना है सूफी के धिक्र से उलझकर
थम जाते हैं, कलम होने को ।

उम्मीद है हमको कि आने वाले समय से
कुछ सुखनवर इन परतों के तसव्वुफ़ को
पड़ेंगे, जियेंगे और कुछ नया लिखेंगे
तब मै भी एक ख्याल बनकर इन
सेमली बिनौलों को कुछ दूर उड़ा ले जाऊँगा।

~ सूफी बेनाम





लियाक़त - capacity, range; बशर-ए-अर्क - human substance; नखत - fragrance ; गोशा  - hut;

काज़ा

एक तनहा सी
साँस पर
जहाँ मै
तड़प  रहा था
उस दो पल की
महोब्बत को-
उस बेसुधी में
दर्द अपना
मुक़द्दर लेकर
मेरे पास आया
कांपता झिझकता
खुद को संभालता
और कहता था...
चाहत की
तड़प से बना था
अंश मेरा
अब महोब्बत की
ज़ीन पे जिंदा हूँ।
क्यूं रहा बेखबर
अपने जिंस से
कैसी रंज सीने में
कि मुझे खुद से
बिखेरता रहा
मेरा ख़ालिक,
और हर बार
लौट के आता
मुझे मिटने को।

~ सूफी बेनाम  


ख़ालिक - one who gives birth ( महोब्बत in this case); ज़ीन - saddle; जिंस - of ones kind; काज़ा - fate

मदहोश

हर कदम ख्वाब तक
पहुँचते देखा है
ज़िन्दगी को कभी शोर
नहीं करते देखा।

ज़िन्दा रहने की ज़रुरत
बस रही हमको
ख्वाइशों को हमने
क़दमों पे चलते देखा।

एक मुलाक़ात से मेरे
रूह्बरू हों लें तो
एक याद पे
ज़िन्दगी जी लें क्यों ?

शक्ल तो तेरी
कभी मैं जान न सका
रात को सायों में
परछाईयां भी गुम थीं।

थी इतनी करीब
जिंदगानी मेरे
की सांसो का सिर
पहचान न सका।


~  सूफी बेनाम





बाघा जतिन

हम एक बाघ का शिकार करके
उसकी खाल उतार कर ले तो आये
पर उसकी दहाड़ को समेट न पाये
ना ही दिखा सके वो रंजिश, न जस्बा
जिसपे हम मिटे थे जुनून बनकर।

वो जंगल भी तो अब नाराज़ से हैं
यहाँ कमी है उस खूं-रेज़ी की
उससे जीवन-जान का तक़वा था
न रहा बाघ तो हिरन भी जाते रहे
धूप और सायों के कफन से रह गये।

ख़त्म  इन मचानों का बंदूकों का वजूद
उस शिकारगाह में जलसे भी क्यूं होंगे
क्यूं कोई बेबस, प्यासे, बे-इख़्तियार नाखून
उस रंजिशी-रिश्ते में अपने हिस्से पर
नफ्स के निशां छोडेंगे।

मुझे ख्वाइश न थी सिर्फ खाल की
इससे ढकी धड़कने,वो जस्बा, वो रंजिश
वो आरज़ू - सबकी ज़रुरत है
इन रिश्तॊ के जंगल में इस फिरदौसी दुश्मनी को
मै फिर से जीना चाहता हूँ, इस बार कुछ ज्यादा।

~ सूफी बेनाम



खूं-रेज़ी - fierceness; तक़वा - balance;

This is a small dig into the skin of relationships that we live. Bagha Jatin - a historic figure in Indian freedom Struggle, killed a tiger when he was sixteen. The fierceness of his combat cannot be understood by just facts. It got concluded in a title. So are our relationships. The primordial reason that brings a relationship into existence is often lost, leaving names and facts.

Wednesday, September 11, 2013

आल्ता

सुर्ख वो सपनों की परत
जहाँ तुम चोरी चोरी जाते हो
उसकी मिट्टी के कुछ निशां
अल्ताई तुम्हारे पाओं में।

सुर्ख चाहत का बेसिरा नशा
जो रहते रहते ढलता है
अब भी एक लकीर बनकर
पावों के धीग पे खिलता है।

कुछ आस करीबी सपनों की
दिन धीरे धीरे ढलता है
माटी के दिए की बाती पर
इस शाम को लेकर जलता है।

हर बार तुम्हारे जीवन को
हर सौम्य सिन्दूरी आशीष रहे
हर साल तुम्हारी तीज पर
किसी चाहत का पैगाम रहे।

~ सूफी बेनाम


Monday, September 2, 2013

बेफजूल

ये सुबह बेफजूल परेशां है कि रात कब होगी,
बेवजह बहकती जाती है मुलाकात की तरह।

रात को एक बदन है जिसके साथ सोये थे,
दिन में क्यों इस शक्ल को पहचानते नहीं।

क्यूं मेरी  आंखें किसी और को तरसती हैं
क्यूं नहीं इन्होने कभी हमारी तरफ देखा।

क्यूं है एक मुखोटा हर आरज़ू की पहचान को
क्यूं हर शय एक नाम से जानी जाती है ।

सिर्फ एक चेहरे में कैसे रहूँ मै सिमटकर
एक शारीर कुछ कम रहा खुद को बसाने के लिये ।

भीड़ के कई चेहरों में खुद को ढूँढना मुमकिन रहा
इतना तवजो दी ख्यालों को की खुद जस्बात बन बैठे ।

ना जाने क्यूं इस साये को रौशनी की चाह हो उठी
पर ये जिस्म बीच में आ ही जाता है ।

क्यूं मेरी मज़बूती को मजबूरी समझा
दखल ख्याल की रही नहीं नासमझियों पर।

~  सूफी बेनाम


This one needs an explanation: Verse 1- This life slipped to its end on a relationship. Verse 2 - In the night  I sleep in my body, but in day do not recognize my face. Verse 3 - What do my eyes want other than me, why do they not look inside. Verse 4 - Why do we have to name people and things, when everything is primordially the same. Verse 5  - How can I limit myself within just a face, a  body. Verse 6 - I can find myself in many faces, life is similar in emotions and events, I trusted in emotions and hence find an echo in many bodies, many Selfs. Verse 7 - Why is it that the Shadow (self/ego) seeks light, the body of desires always stands in between. Verse 8 - there is some naughtiness in the complete construction, my strengths have been understood as my shortcomings. I can understand and try to unveil the Truth. But why this long route, when it all could be simpler. Looks so futile.