Monday, March 27, 2017

ये अंधड़ का अँधेरा है या खोया सब नसीबों में

ये अंधड़ का अँधेरा है या खोया सब नसीबों में
दिल-ए-रेगिस मिला हमको नफ़ी के इन सराबों में

ज़रा अब सुरमें दानी से निकालो ख्वाब की हलकें
कभी तो अस्ल की शकलें लगा दो इन शबाबों में

कहीं नाहक अचानक से हों तुम से फिर मुलाक़ातें
न जाने क्यों छुपाता है शहर तुमको किताबों में

वही नुख्ता जो ठोड़ी पर खिला हर्फ़ों की बाली संग
लगा लो तुम ग़ज़ल के संग मिलो हमको खरबों में

चुभे कीकड़ की छावों सी, भसक रस्मों रिवाजों की
कहो तो बांध लें निस्बत तुमारी हम रक़ाबों में

लगा बेनाम हर चहरा, फ़ना सब धूल में आलम
बहुत ही झूठ सा सच है मिला हमको हिसाबों में

~ सूफ़ी बेनाम

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