Sunday, September 28, 2014

पहचान

मैने कल -कल झूमती ताज़ा लहरों को
बीच दरिया , एक सिल-ए -जबाल की छाती के
मदहोश -ख्यालों में उलझे हुए देखा था।
बार-बार बहाव का बहाना ले आती थीं मौजें
अपने जिस्म से उस चट्टान को डुबोती
खुद टूटती- छीतराती और बिखर जाती थीं।

मैं जानता हूँ, वो कुछ देर तो ठहराव लाया था
कुछ देर तो उस आज़ाद -ताज़ा
तीरे की मस्त-मादक लहरों का शबाब
तड़पा था, उलझा था, छटपटाया था।
पर बह गया वह, गिरफ़्त छुड़ाकर
और बहाव की बेसाध मजनूनी में रेत हो गया।

न जाने क्यूँ डूब रहा था
समुन्दर में पिघलकर वो दरिया
ना जाने क्यूँ अथार रेतीले आशार भी
साथ बहा लाया था    
ना जाने क्यूँ रोक नहीं सिल -ए -जबाल को
उस ताज़े दरिया ने, अपनी आगोश में।

आज सागर के रेतीले तल के वीराने का
एक नशीला, खुद-फ़रोश,
शायराना मिज़ाज़, बदमस्त ज़र्रा
बेहिसाब बिखरी रेत में टूटा हुआ
अपने शाह-ज़ोर जबाल को याद करता है
अपनी पहचान ढूंढ़ता है।

~ सूफी बेनाम



शाह-ज़ोर - robust ; खुद-फ़रोश - self -obsessed ; जबाल - mountain ; सिल - stone ; शबाब- youthfulness; मजनूनी - madness ; आशार- remains। 

Sunday, September 7, 2014

नयी कलम

कहती ही नहीं है वो
जो मैं बताना चाहता हूँ।
क्यूँ एक नयी कलम  को
बांधने की कोशिश कर रहा हूँ ?

रहती तो है हाथ में मेरे,
और मेरे ही सूने लम्हों को
कोरे काग़ज़ो पे साकार करती है।
फिर मनचली सी  क्यूँ  है वो ?

कभी नोक इसकी भागती सी है
कभी बेइज़ज़त बहती है नुक्तों पर ।
क्यूँ स्याह डूबे अंधे-अक्षरों को
बेहिसाब तड़पती है वो ?

पर शायद अफरीदगार भी
पूरी कोशिश नहीं करता
गिरफ़्त अंगुलियों की
मुशफ़िक सी, कमज़ोर सी है।

सोचता हूँ कुछ देर इस
नयी कलम को रख दूँ
और गोदना बंद करूँ
अनकही, कोरे कागज़ों पर ।

पर बगैर मेरी अंगुलियों के
बेमतलब सी अधूरी सी है वो।

~ सूफी बेनाम



मुशफ़िक - compassionate; अफरीदगार - Lord, God.

गहरी-नींद

कुछ अपनी आदत  से
या महज़ सामान ढूंढने को
या फिर यूं ही थक कर के
तुम आते थे दो पल को।

दिखता नहीं था कभी चेहरा तुम्हारा
पर शायद तुम्हें मैं -से जानता हूँ
न जाने कितने रिश्तों-रंजिशों से बने हो
फिर भी अपनी चाहत से पहचानता हूँ।

रात गहरी नींद में था मैं सोया
बार-बार दरवाज़ा खुल रहा था
नींद टूटती दो-पल हर बार मेरी
शायद तुम आते थे।

~ सूफी बेनाम


Friday, September 5, 2014

कशिश

इस कशिश से ज़िंदगी की तरन्नुम
कुछ फ़ीका सी,  शरमाया सी  है।

कोई नश्तर फिर नया आज़माओ
दर्द की धीगें अब बूढ़ी हो रही हैं।

क्यूँ दुहाई बेवफाई की जहांपर
सुरमयी रस्में कहानी हो चुकी हैं।

तेरी दोस्ती, मेरी चाहत की ये अर्ज़ी
महज़ एक नाजायज़ रस्म सी है।

कसमें अपनी जवानी खो चुकी हैं
ये नज़ाकत अब रवानी खो चुकी है।

सुबह की थीं, बेपरवाह मियादों की दरारें,
जिनमें सरक कर दफन थे स्वप्न अधूरे।

आज अंजोर से पहले जाग करके
खुली आँखों में उन्हें हैं घोलकर बहलाते ।

सिर्फ दर्द से ज़िंदगी का एहसास
कुछ काम है।

~ सूफी बेनाम









हाउस वाईफ (house-wife )

कई बार ऐसा होता है
कि तुम घर तो पहुँचते हो
पर बाहर के होकर ही
रह जाते हो।
मैंने देखा है,
सुबह भी,
मन बाहर का होता है;
और फिर उस बाहर की दुनिया में
वापस यूं चले जाते हो
जैसे शाम को घर आओगे।

~ सूफी बेनाम