Tuesday, November 26, 2013

गुज़ारिश ...

इन पे दस्तक दे पूछ रहा
क्यों चला गया क्यों फिर आया?

क्या कोई यहाँ पे रहता था
मेरी झूठी याद लिए ?

क्या कोई और यहाँ पे आता है
टूटे-झूठे ख्वाब  लिए ?

कुछ कमरे थे यहाँ सजे  हुए
या धूमिल हैं यादें मेरी

बिछड़ी -कमज़ोर कुछ  आवाजें
बिखरी मरे कानो पर...

टूटी सासों की दरख्वाजें
इन सूनी दीवारों पर..

गर कोई यहाँ से गुज़रे तो
कहना कोई नहीं आया इन टूटे खहंडहारों में

~ सूफी बेनाम



होश

तेरे हुस्न के तरीकों को मैं पहचान तो लूं
तेरे हुस्न के तरीकों को मैं पहचान तो लूं
जाने फिर कब होश में आऊं घुल जाने के बाद।

~ सूफी बेनाम




तरीका : A tariqa is the term for a school or order of Sufism.
This verse is a sufi expression that expresses the desire of a disciple to understand the shell of the world, the order, before his "I" his "ego" looses itself or becomes one with the discipline, the world, the beauty of the creation.

I love this verse and have not been able to add or subtract anything from it since it was written on a very special day 15th November this year. The verse feels itself complete within just these three lines.

Tuesday, November 19, 2013

ताज.…

कैसे बेवजह पिरोती हैं
ये नोकीली मीनारें
बादल के बेज़ार टुकरों को ?

कबसे  इस अब्याज़ पत्थर के
पाक दिल कि आगोश में
एक अधूरी महोब्बत की कब्र है बनी ?

क्यों  है ये झीने दुपट्टों सी
जालिओं से ढके सीने के
गुबार को ये गुम्बज़ सधा ?

है ये कैफ़ियत इंसानी हाथों की
या किसी खोज में तराशे
ये संगेमरमर के उजले टुकड़े ?

है  गुलज़ार  ये ताज
किसी फ़रियाद को
या मुझे है  ऐसा दीखता ?

जैसे किसी शौक़ीन शायर का
चिकन का बेसिलवट कलफ़ लगा कुर्ता
स्त्री कर पहनने को तैयार हो

और मेरे दिल का तसव्वुर  
किरणों कि थिरक से आँखों को
गजराए चारबाग़ कि खुशबु से चौंधियाने दे।

जाने  किस मिट्टी कि थी वो
स्तम्भ में दबे जिसकी महक
महोब्बत को दिल के मक़बरे तक खींच लाये।

~ सूफी बेनाम



तसव्वुर - conception, reflection.
स्तम्भ - plinth
गुलज़ार - flourishing
कैफ़ियत - intoxication
अब्याज़ - white
बेज़ार - unhappy, annoyed