Tuesday, November 24, 2015

मिलो तो कुछ अधूरापन से मिलो

जो अधूरा सा हो खुद में अब तलक
जो अब-भी ढूंढ़ता हो साथ थोड़ा
जो चाहता हो बैठना कुछ देर यूं ही
जो हो गया हो ज़िन्दगी से आज़मूदा
जो बेचैन नहीं पर शांत भी नहीं रह पाया
जो जानता हो ज़हन के अंदर तक का सफर
जो मेरे फरेब पर भी विश्वास रख सके
जो मुझसे अलावा कोई छवी न देखे
ऐसे अक्स-ए-इंसा से मिलने के लिये
बेचैन हूँ मैं
शायद ढूंढ़ता हूँ खुद को भी कभी कभी।
~ सूफी बेनाम

आज़मूदा - tried and tested.


Wednesday, November 18, 2015

दूब और बरगद

धरा-सम्पदा दूब और बरगद हम
पनपे नहीं एक ठौर साथ-साथ हम 

फ़िज़ा ओढ़े तुमको दूब आँचल सा
मैं था महत बरगद सा उमड़ रहा
कोशिश कि सटाव से ढक लूँ तुमको
पर दम और क़ज़ा के फलसफे थे

दबे थे तहों में नयी पहचान बनके
नमी से धरा में कुछ बीज जगे थे
बेचैन  उगने को सतह तक जो आये
कोंपल घास औ दरख़्त मुस्कराये

सुप्त अंकुरित हुए अपने शयन से
न जाने कब भिन्न अभिलक्षण लाये
आइंदा की पहचान किसे  कहाँ से
कब  गांत बदा पहचान लेकर आये

अंश हमारे आज  पवन के प्रवाह से
उड़ के बेचैन नियति के अयान से
अधीर हैं खोजने अस्तित्व फिर से
कुछ निस्सार कोने धरा सम्पदा में

~ सूफी बेनाम




आइंदा - future , गांत - plants , बदा - destined , महत - dense , सटाव - proximity, दम - life/breath, क़ज़ा - destruction, फलसफे - philosophy, निस्सारा - sacrificed/ scattered , अयान - nature/ disposition 

Tuesday, November 17, 2015

क्यों दौर-ए-जदीद को तक़दीर समझ लें

क्यों दौर-ए-जदीद को तक़दीर समझ लें ?
उम्र के तक़ाज़े को कैसे जवानी समझ लें ?

दस्त-ए-शिफ़ा है हर लम्हा मुलाक़ात का
पर क्यों न कुछ देर और बीमारी समझ लें ?

चुभता है हर अल्फ़ाज़ा-ए-नख मैं जानता हूँ
क्यों न कुछ देर मक़सद-ए-खामोशी समझ लें ?

बेताब नब्ज़ है मोहब्बात और जुदाई भी
क्यों न मुलाकात तुझमें खुद को समझ लें ?

नासमझी इंसा को बाम-ओ-दर बसाती रही
क्यों न चारागाह भी इसे तक़दीर समझ लें ?

ग़ैर मज़हबी गर हो जायें इंसा ये रिश्ते कैसे
क्यों न तुझे सूफी औ खुद बेनाम समझ लें ?

~ सूफी बेनाम

जदीद -  modern, नख - nails/claws, तक़ाज़ा - characteristic arising out of change/nature, दस्त-ए-शिफ़ा - hand that heals.



Wednesday, November 11, 2015

रौशनी को बसा लेना

माना
धूमिल सत्य हो जाता है
जद्दो जेहद हर साँझ तक
खुद में, मैं बस जाता है
अहम् चेतन की हद तक ।

जागो
कार्तिक की गहरी रात है
मौसमों के बाहुल्य तक
सौंदर्य - लावण्य- शोभ है
दीयों की लौ दयार तक।

आज
दीपावली  आतिश पर्व है
प्रज्जवल आंतरिक रूह तक
प्रेम-अनुराग, उत्सर्ग-योग है
ज़िन्दगी की मुंडेर तक ।

~ सूफ़ी बेनाम


बाहुल्य - abundance, दयार - region/territory, उत्सर्ग - act of giving freedom.










Tuesday, November 3, 2015

दर्पण

हटो
ज़रा रास्ता दो,
आईने में
उतारना है मुझे।
पूछना है
अपने अक्स से,
की गर है बिम्ब मेरा
तो कुछ बोलता
क्यों नहीं है ?
मिलना है मुझे
मुझसे ?

~ सूफी बेनाम