Sunday, November 16, 2014

फ़राज़ न तुझसी नज़र मेरी

फ़राज़ तुझसी न निगाह मेरी
न नज़र में सूद -ओ-ज़ियान के
खाते बे-शुमार लदे
न अंधेरों में सिराज से
मेरे अश्क में सपने घुले।  

महोब्बत को कभी न लिख सका
न नेमत-ए-ज़ीस्त जैसे तेरे
न दीवाने तुझसे कोई मेरे
पर शायर हूँ तेरे जिंस का
लकीरों को ही लिख रहा।

ख्याल, परवाज़-ए-फ़राज़ का
ता जींद ज़ेर-ए-लब रहा
ये  सुरूर-ए- ख़ैर ये सलाहियत
मेरी ज़िन्दगी का पड़ाव थे
आज दर्द ही मुतरिब है।

मैं गुरेज़ नहीं गुस्ताख़ था
मुझे  शक नहीं था कभी मगर
मैं यकीन भी न कभी कर सका
रहे लब पे शीरीं अल्फ़ाज़ तेरे
एक सदी थी जो काट गयी।

बेक़रार है, कलम की थोर मेरी
और स्याही में सहलाब है।
कुछ अल्फ़ाज़ से दुआ तो है
की कागज़ों में जगह तो दें
एक उम्र से बेनाम हूँ।

~ सूफी बेनाम



सिराज - lamp ; सूद -ओ-ज़ियान - profit and loss ; नेमत-ए-ज़ीस्त - gift of life; जींद - life; गुस्ताख़ - arrogant ; ख़ैर- welfare; सलाहियत - capability, caliber ;  फ़राज़ - elevated; ज़ेर-ए-लब - whispers; गुरेज़ - one who escapes, fugitive; शीरीं - sweet; थोर - nib; मुतरिब - singer, minstrel.