Wednesday, June 26, 2013

मै उलझा नहीं कभी सवालों पे

है नशे पे नशा यूं परत दर परत
क्यों तहों में ये सांसें बेजान हैं ?
हों कई कह्कशे यूं ज़िक्र दर ज़िक्र
जैसे इन रगों में कोई बेनाम है।

परेशां हैं सांसें सितम दर सितम
कसम सिलवटों की अब्र बेइमान है
कागज़ पर रिहाइश खता दर खता
वक़्त बढता रहा ज़ुल्मो की तरह।

जिये एक हसरत शक्ल दर शक्ल
आज रूहानी ये जस्बा शरमसार है
बेछाड़ते हॊ यारा कदम दो कदम
क्या रेतीले शहरों में कोई निशान है ?

सिली हैं ये सांसें जिस्म दर जिस्म
यहाँ का मसीहा कोई इंसान है।


~ सूफी बेनाम


Monday, June 17, 2013

एम्स्टर्डम - डी - वलेन्स डिस्ट्रिक्ट

बेपर्द शोलों की हैं मजारें यहाँ
नज़र ठहरी यहाँ हर इनायत पे है।
सर झुकता नहीं कि इबादत करें
पिघलते हैं इमान हर फेर पर।

इस कहकशाँ में कैसे ढूँढें ज़मीन
कही तो पांव पल को ठहरते नहीं
ए जिस्म मेरे अखलाक़ पर रहम कर
ये उधाडा हज़ारों सब बेजान हैं।

है शफ़ेअ शहवत की कर्कश यहाँ
मुफलिसी बाकिरदारों के चोगों में है
न कोई जान, न आशिक, न महबूब है
इन बेबस नर्म बाहों का जज्बा तो देख।

है मुनासिब यहाँ पर कोई भूल हो
और खुदाई के नखरों को मकबूल हो
क्यों न तू मुझको अपना तरीका बना
महफ़िल-ए-गुज़र थोड़ा सबात से चल।


~ सूफी बेनाम






कहकशाँ - Galaxy; अखलाक़- character; उधाडा - nudes; शफ़ेअ - one who argues; शहवत - sexual urge; कर्कश - sharp and rough edges; महफ़िल-ए-गुज़र - one who walks with you in the celebration of life; सबात - firmness.

Wednesday, June 12, 2013

थोडा नया मै पीने वाला / नशीली आशिया / सिगरेट

महज़ दो पल दिलासा है, हामी-तरंग सांसों में
सुकून कहते हैं फ़ाश होगा, इस कदर नशा चढ़ कर
गले को घेर लेते हैं तुम्हारी जिन्स के बादल
सिहर बदन में उठाता है अगर कश तेज़ खींचे तो।

जलती हो और फ़ना हो जाती हो अंजाम से पहले
दबा के बुझाने पर भी सुलगती हो धुआं देकर ?
कभी अंगार पहुंचे नहीं बेसब्र लबों के चुम्बन को
नशा छू कर गुज़रता है हमारी नफ़स में घुलकर।

खराकती है मेरी सांसें तुम्हारी तासीर सिने में
कशों में खींचे हैं ये जज़्बात नब्ज़ों तक
रिहा धुएं के छल्लों में हमारा जवाब अंजाम को
बसी है रोष तपिश की हमारी सुर्ख आँखों में।

बेबसी इन्तजार की अजब तरह से पालें क्यों ?
हॊश रहता नहीं हर बार तुमको सुलगने से पहले
ज़िन्दगी के नशीले तरीके बहुत दूर तक नहीं जाते
ये जिस्म भी क्यों फ़ना है इकरार से पहले।


~ सूफी बेनाम 



जिन्स - family ; फ़ाशा - apparent ; नफ़स - breath; हामी- agreeable

Monday, June 3, 2013

मेरी कहानी

कुछ चौदह साल का था मै
जब पहली बार जाना
एक जसबा जिससे हम
दिल की मुज्तरीबी को
लबो से लुड़का कर
शब्दों में बांध सकते है
और फिर खोलते समय
नये माइनों में जगाते हैं। (I learned poetry)

यह एहसास दबा रहा
मेरी हौसला- बुलंदगी पर
पर साथ देने को जगता
जब मुझे सबसे अकेला
या सबसे अलग पाता।
उधेड़ता रहा मेरी हरारश को
घुलता रहा मेरी नब्ज़ों में
उसका सुरूर उसकी उफ़न। (It helped at times)

जैसे मोहब्बत में
धीरे-धीरे करीबी बड़ते दो बदन
हर तरह का रोष, मुज़हामत
अपनी शक्सियत का पेचिदापन
रदद करते, उतार फेंकते हैं।
जैसे ख्यालों में ही बात हो जाना
और एक मुस्कान से दूसरी
मुस्कराहट का खिल जाना।
वैसे ही मानो
इस बे हरकती में
मै और वो जज़्बा एक हैं
अब अकेले में ही
परछाईयों को पलटना समझना
सोचना, बैठना, कहना
एक रंगीन महफ़िल के बराबर है
और नब्ज़ से ही नज़्म है। (poetry and breath is one after knowing life)

यहाँ इस किनारे से थोड़ा ही दूर
बहाव ज्यादा होता है
ज़रा भी पांव फिसले तो
पर तमाम कोशिशों के बाद
सांसों की रंजिश तोड़ना होता है
डूबना ही होता है
और आबाद है यहाँ
हर डूबने वाले।
काश एक और मौका मिले
फिर से पैदा होने का
ज़िन्दगी से हम एक बार आंखे
मिला के चलना चाहते हैं।
किसी गम किसी तजुर्बे पे नहीं
मासूमियत से डूबना चाहते हैं।
और बगैर इस जस्बे के
चुप-चाप जीना चाहते है। (I want to live this fullness from the beginning - even in my youth, all dreams should be LIVED, there should be no desires.)

~ सूफी बेनाम

मुज्तरीबी - restlessness ; मुज़हामत- inhibition.